जब समय की कोई कीमत नहीं रहती: बिहार की सड़क से अर्थव्यवस्था तक की कहानी
बिहार की धरती पर जब JCB की दहाड़ सुनाई देती है, तो लोग उठते नहीं — खिंचे चले आते हैं। ये तमाशा नहीं, ये अर्थशास्त्र का लाइव डेमो है। इसे कहते हैं opportunity cost ka meltdown। जब लोगों के पास करने को कुछ और नहीं होता, तो नाली की सफाई भी Netflix लगने लगती है। क्योंकि भाई, बेरोजगारी में टाइमपास भी स्किल बन जाता है।

आज सुबह ऑफिस जाते समय, पटना की एक सर्विस रोड पर जमा भीड़ ने मेरा ध्यान खींचा। बिहार, भारत के सबसे गरीब राज्यों में से एक, वहां किसी भी भीड़ का अर्थ अक्सर बड़ा होता है—कोई राजनीतिक रैली, धार्मिक आयोजन या फिर कोई सड़क हादसा। लेकिन यहां न कोई नेता था, न भजन मंडली और न ही कोई मशहूर शख्सियत। भीड़ जमा थी एक साधारण पीली JCB मशीन के इर्द-गिर्द, जो नाली की सफाई कर रही थी।
आप सोच रहे होंगे—तो क्या? लेकिन यही “क्या” असल मुद्दा है।
सैकड़ों लोग खड़े थे, चुपचाप, ध्यानपूर्वक देख रहे थे कि कैसे मलबा हटाया जा रहा है। कोई हल्ला नहीं, कोई उत्तेजना नहीं। कई तो आधे घंटे से ज्यादा वहां खड़े रहे। मानो कोई चमत्कार हो रहा हो।
यह नज़ारा क्यों मायने रखता है?
यह दृश्य मेरे ज़ेहन में यूं ही नहीं ठहर गया। ये एक आर्थिक सिद्धांत—अवसर लागत (Opportunity Cost)—का सबसे जीवंत उदाहरण है।
ये अवसर लागत क्या बाला है?
हर बार जब आप कोई चुनाव करते हैं—किसी काम को करते हैं—तो आप किसी दूसरे विकल्प को छोड़ते हैं। यदि आप एक घंटे तक JCB की सफाई देखते हैं, तो आप वो एक घंटा किसी और काम—पढ़ाई, काम, आराम या परिवार के साथ समय बिताने में नहीं लगाते।
अब सवाल यह है—अगर उस छोड़े गए विकल्प की कोई असली कीमत ही नहीं है? यानी आप अगर वो काम न भी करते, तो क्या फर्क पड़ता?
बिहार: आंकड़ों की असहज सच्चाई
बिहार की जनसंख्या 11 करोड़ से ज़्यादा है। यहां 2023–24 में सकल घरेलू उत्पाद (GDP) की वृद्धि दर 9.2% रही—जो सुनने में शानदार लगता है, लेकिन असल में यह एक बहुत ही कम आधार स्तर से ऊपर आने का असर है।

- प्रति व्यक्ति आय: ₹36,333 प्रति वर्ष (लगभग $430)। भारत में सबसे कम।
- कृषि में 54% से अधिक लोग कार्यरत हैं, लेकिन यह केवल 20% उत्पादन देता है।
- शहरी बेरोज़गारी लगभग 11% है।
- ग्रामीण इलाकों में बेरोज़गारी और अर्ध-बेरोज़गारी आम है।
इन हालातों में, अगर कोई व्यक्ति आधे घंटे तक JCB की सफाई देखता है, तो वह कोई बड़ा आर्थिक नुकसान नहीं कर रहा—क्योंकि उसके पास उस समय करने के लिए कुछ और ज़्यादा ‘मूल्यवान’ था ही नहीं।
जब समय की कीमत गिर जाती है
इस स्थिति में समय का मूल्य एकदम कम हो जाता है। और यह सिर्फ मजदूरी या तनख्वाह की बात नहीं है, बल्कि उस काम की ‘अवसर लागत’ की बात है जो आप नहीं कर रहे।
तो यह देखकर हमें यह समझना चाहिए कि ये लोग आलसी नहीं हैं, बल्कि अपने सामाजिक-आर्थिक परिप्रेक्ष्य में पूरी तरह तर्कसंगत हैं। अगर कोई नौकरी नहीं है, कौशल का उपयोग नहीं हो सकता, और बुनियादी सुविधाएं नहीं हैं—तो किसी को देखने भर से भी सामाजिक जुड़ाव महसूस होता है।
यह सिर्फ बिहार की बात नहीं
ऐसी स्थितियां अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और यहां तक कि विकसित देशों के कुछ ग्रामीण या शहरी इलाकों में भी देखी जा सकती हैं। जब शिक्षा बाज़ार की मांग से नहीं जुड़ती, जब बुनियादी ढांचा नहीं होता, और जब रोज़गार नहीं मिलता—तो इंसान का समय खुद-ब-खुद कम मूल्यवान हो जाता है।
क्या आपने नोट किया कि आजकल अमीर देशों में भी लोग यूट्यूब, इंस्टाग्राम, या गेम्स में घंटों बर्बाद कर देते हैं? यह उसी JCB देखने की डिजिटल रूप है।
समाधान क्या है? समय का मूल्य बढ़ाना
अगर हमें सच में विकास चाहिए, तो सिर्फ GDP नहीं, बल्कि हर व्यक्ति के समय की कीमत को बढ़ाना होगा।
इसके लिए ज़रूरी कदम:
- उत्पादक रोजगार सृजन करें
ऐसे काम जो न सिर्फ पैसा दें, बल्कि कौशल भी बढ़ाएं और अर्थव्यवस्था को गति दें। - कौशल विकास को रोज़गार से जोड़ें
उदाहरण के तौर पर, मनरेगा जैसी योजनाओं में सिर्फ मिट्टी खोदने की बजाय, कोई हुनर सिखाया जाए तो वही घंटे का मूल्य कई गुना बढ़ सकता है। - बुनियादी ढांचे में सुधार करें
इंटरनेट, सड़क, बिजली—ये सब लोगों को बाज़ार और अवसरों से जोड़ते हैं। - शिक्षा को ‘अवसर निर्माण’ बनाएं
क्या स्कूलों में जो सिखाया जा रहा है, वह बच्चों के समय का भविष्य में सही मूल्य देगा? - छोटे इंसेंटिव और व्यवहारिक बदलाव करें
जैसे प्रशिक्षण में भाग लेने पर स्टाइपेंड देना, जिससे लोग समय को गंभीरता से लेने लगें। - स्थानीय नवाचार को प्रोत्साहन दें
ताकि लोग सिर्फ नौकरी ढूंढने पर निर्भर न रहें, बल्कि खुद भी अवसर पैदा कर सकें।

क्या वाकई आलस समस्या है?
नहीं! असली समस्या है—समय की अवमूल्यता (devaluation)। और इसका समाधान सिर्फ व्यक्तिगत बदलाव नहीं है—यह नीतियों, संरचनाओं और संस्थाओं में बदलाव से आएगा।
इतिहास गवाह है—चाहे औद्योगिक क्रांति हो, या जापान और कोरिया की तेज़ी से हुई आर्थिक प्रगति—जब समाज समय को मूल्य देता है, तो लोग उस पर खरे उतरते हैं।
अंतिम पंक्तियाँ: जब JCB सिर्फ मशीन बन जाए
अगर हम Bihar, Detroit, Jhumri Telaiya या अफ्रीका के किसी गांव में लोगों के समय को मूल्यवान बना पाएं, तो JCB मशीन फिर से अपने असली स्थान पर आ जाएगी—सड़क किनारे काम करने वाली एक सामान्य मशीन।
लेकिन उसके इर्द-गिर्द कोई भीड़ नहीं होगी। क्योंकि तब लोग किसी और काम में लगेंगे—जो उनके जीवन को आगे बढ़ाने वाला होगा।
समय को मूल्य देना ही असली विकास है।